रूस कि बोल्शेविक क्रांति, पूँजीवाद का प्रथम बड़ा संकट ( प्रथम विश्व युद्ध ) Russia's Bolshevik Revolution, the first major crisis of capitalism (First World War)

 

रूस कि बोल्शेविक क्रांति Russia's Bolshevik Revolution

  • सर्वप्रथम मार्क्स के द्वारा यह घोषणा की गई थी कि पूँजीवाद का संकट समाजवाद के विकास के लिए रास्ता तैयार करेगा। उसके लिए पूँजीवाद के संकट का अर्थ था। कि अत्यधिक औद्योगीकरण से उत्पन्न वर्ग संघर्ष की स्थिति। लेनिन के शब्दों में, साम्राज्यवाद ने तात्कालिक 1 रूप में पूँजीवाद को संकटग्रस्त होने से बचा लिया था। उसके अनुसार, पूँजीवादी सरकारों ने अपने आपको वर्ग संघर्ष और श्रमिक आंदोलन से बचाने के लिए कुछ समय के लिए अपने श्रमिकों का शोषण सीमित कर दिया और अतिरिक्त संसाधन के लिए उपनिवेश की ओर मुड़ गए। इसलिए लेनिन ने उपनिवेश के लोगों को 'नए सर्वहारा' का नाम दिया।
  • परंतु उसका मानना था कि भले ही पूँजीवाद का संकट थोड़े समय के लिए टल गया हो, परंतु समाप्त नहीं हुआ है। साम्राज्यवादी प्रसार के मध्य ही पूँजीवादी देशों में टकराहट होगी, यह टकराहट एक अखिल यूरोपीय बुद्ध को जन्म देगी। इस युद्ध के मध्य पूँजीवाद कमजोर पड़ जाएगा। इसी का फायदा उठाकर सर्वहारा वर्ग को सरकार पर कब्जा कर लेना है। फिर यही रणनीति उसने रूस के संदर्भ में अपनाई।
  • विश्व इतिहास में 1789 एवं 1917 के वर्ष महत्वपूर्ण भू-चिह्न बनकर उभरते हैं। 1789 के वर्ष में एक लंबे प्रयास के पश्चात् बुर्जुआ वर्ग ने सरकार का नियंत्रण स्थापित किया था, तो 1917 के वर्ष में मार्क्स  के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो को पहली बार क्रियान्वयन की दिशा में आगे बढ़ने का मौका मिला और एक सर्वहारा सरकार द्वारा सर स्थापित हुई। इसलिए ऐसा कहा जाता है कि रूस की बोल्शेविक क्रांति ने उस प्रश्न का जवाब देने का प्रयास किया, जो फ्रांस की क्रांति के मध्य अनुत्तरित रह गया था।


Russia's Bolshevik Revolution










■ दो क्रांतियों का सहयोग अथवा एक ही क्रांति के दो चरण?

रूस की क्रांति के मध्य दो क्रांतियाँ घटित हुई- एक क्रांति मार्च में घटित हुई, तो दूसरी अक्टूबर में इसे दो भिन्न क्रांतियाँ मानने के बजाय एक ही क्रांति के दो चरण माने जाने चाहिए- बुर्जुआ चरण एवं सर्वहारा चरण ।

प्रथम चरण (फरवरी-मार्च क्रांति) अथवा बुर्जुआ चरण

  • कारण अथवा पृष्ठभूमि
आश्चर्य का विषय यह है कि रूस यूरोप के पूर्वी छोर पर स्थित था तथा पिछली तीन शताब्दियों में पश्चिमी यूरोप में होने वाले परिवर्तनों से बहुत हता कम प्रभावित हुआ था। इसलिए अगर हम मार्च क्रांति के कारणों का परीक्षण करते हैं तो इसके निम्नलिखित कारण की दिखाई पड़ते हैं |

1. प्रजातंत्र के युग में कठोर राजनीतिक संरचना को बनाए रखने का प्रयास 

कुल मिलाकर 1917 में रूसी राष्ट्र की वही स्थिति थी, जो 1789 में फ्रांसीसी राजतंत्र य की रही थी। राजतंत्र कितना निरंकुश रहा था, इस बात का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1905 की क्रांति के बाद ही रूस में पहली प्रतिनिध्यात्मक संस्था अथवा विधानमंडल के रूप में ड्यूमा का गठन हुआ था।

2. परंपरागत सामाजिक ढाँचे में परिवर्तन को रोकने का प्रयास

सरकार सामाजिक परिवर्तन के मार्ग में भी बाधा बनी हुई थी। रूस में स्वतंत्र रूप में एक मध्यवर्ग का विकास नहीं हो सका था. फिर 1861 से पूर्व वहाँ दास व्यवस्था भी प्रचलित थी। पहली बार 1861 में अलेक्जेंडर द्वितीय की सरकार ने दास व्यवस्था का उन्मूलन किया। परंतु चूँकि उसने भूमि का पुनर्वितरण नहीं किया, इस कारण से दासों की स्थिति अच्छी नहीं हो सकी।

3. आर्थिक पुनर्वितरण के बिना रूस में आर्थिक संवृद्धि गं को प्रोत्साहन

यह सही है कि 19वीं सदी में रूसी वे सरकार ने था औद्योगीकरण की दिशा में गंभीर कदम उठाया था, परंतु इसका वास्तविक उद्देश्य रूस के शासक के में नेतृत्व में रूस को एक सशक्त पूँजीवादी राष्ट्र के रूप में स्थापित करना था, जो साम्राज्यवादी विश्व में अपना S वर्चस्व स्थापित कर सके। इस पूरी सुधार प्रक्रिया में रूस की जनता के कल्याण को ध्यान में नहीं रखा गया। वस्तुतः पूँजीवादी आधुनिकीकरण की निम्नलिखित सीमाएं उभर कर आईं |

  • स्टॉपलिन नामक विशेषज्ञ के अंतर्गत जो कृषि सुधार की प्रक्रिया आरंभ की गई थी उसका उद्देश्य रूसी उद्योगों के लिए बाजार का विस्तार करना था, न कि किसानों का उत्थान । अतः इसका फायदा केवल धनी किसानों को मिला।
  •  रूसी औद्योगीकरण राज्य के अंतर्गत लाया गया था। अतः यह एक सशक्त मध्यवर्ग को जन्म नहीं नहीं दे सका, जो फ्रांस की तरह बुर्जुआ वर्ग को क्रांति के मध्य मजबूत बना पाता।
  • यद्यपि पश्चिमी देशों की तुलना में औद्योगीकरण अपेक्षाकृत सीमित था, परंतु औद्योगीकरण की विशेषता यह थी कि अधिकांश उद्योग एक ही क्षेत्र में स्थापित थे। इसलिए कुछ खास क्षेत्रों में श्रमिकों की आवाजाही हुई। इससे वर्गीय चेतना में तेजी से प्रसार हुआ।

4. एक बौद्धिक वर्ग का उद्भव तथा उसके द्वारा व्यवस्था की तीव्र आलोचना

जैसा कि हम जानते हैं। कि विद्रोही मनोवृत्ति को क्रांति का जामा पहनाने तथा जन असंतोष को दिशा देने का काम विचारक करते हैं। इन विचारकों के द्वारा अन्यायपूर्ण व्यवस्था की आलोचना करके उस व्यवस्था की वैधता पर प्रश्न चिह्न लगाया जाता है। रूस में भी ऐसे हो विचारक थे- लियो टॉल्सटॉय, मैक्सिम गोर्की, दोस्तोयेव्स्की, इवान तुर्गनेव आदि । टॉल्स्टॉय ने 'War & Peace' के माध्यम से रूसी जनता में गौरव की भावना भरी। गोर्की, जो स्वयं बोल्शेविक दल का सदस्य भी रहा ने 'मदर' (माँ) नामक एक क्रांतिकारी कृति की रचना की। इन सबको प्रभाव में एक सशक्त बुद्धिजीवी वर्ग का उदय हुआ।

5. कुछ प्रमुख घटनाओं की भूमिका

  • 1905 की क्रांति
सरकार के विरुद्ध असंतोष तो पहले से ही चला आ रहा था, किंतु जब 1905 में सरकार जापान के हाथों हार गई, तो फिर जन असंतोष को बल मिला। फिर लोगों के एक समूह के द्वारा राजमहल में जाकर अपनी माँगों की एक तालिका प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया। परंतु सरकारी अंगरक्षकों ने गोली चला दी, जिसके कारण कई लोगों की मौत हो गई और कई अन्य घायल हो गए। इसे 'खूनी रविवार' के नाम से जाना गया।
 फिर इसने देखते-देखते एक क्रांति का रूप ले लिया जिसमें किसानों ने बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाई। आरंभ में तो सरकार झुक गई, परंतु आगे क्रांति की शक्ति कमजोर पड़ते ही उसने उसे दबा दिया। इसलिए यह क्रांति कोई बड़ा परिवर्तन नहीं ला सकी।

  • प्रथम विश्वयुद्ध की भूमिका
1917 की रूसी क्रांति की व्याख्या प्रथम विश्व युद्ध की भूमिका के बिना नहीं हो सकती। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि क्रांतिकारी विचारों को बलपूर्वक दबा दिया जाता और कुछ सुधार करके लोगों को संतुष्ट करने का प्रयास किया जाता। रूस की क्रांति भी उसी दिशा में जा सकती थी क्योंकि सरकार ने परिवर्तन की दिशा में कदम बढ़ा दिया था, परंतु प्रथम विश्वयुद्ध ने संपूर्ण संतुलन को बिगाड़ दिया। प्रथम विश्वयुद्ध ने निम्नलिखित रूप में स्थिति को संकटपूर्ण बना दिया ।

  • इस काल में कार्यपालिका एवं विधानमंडल (ड्यूमा) के बीच अत्यधिक मतभेद उपस्थित हुआ।
  • बिना किसी आर्थिक योजना के ही रूस के द्वारा युद्ध में व शामिल होने से बाजार में आवश्यक वस्तुओं की कमी हो गई। फिर, सरकार के द्वारा अत्यधिक नोट छापे जाने के कारण मूल्य वृद्धि की समस्या उत्पन्न हो गई।
  • शत्रु पक्ष को परास्त करने के लिए सरकार के द्वारा एक विशिष्ट प्रकार की रणनीति को अपनाया गया, जिसे  ‘स्कॉर्ल्ड अर्थ नीति' (Scorched-earth policy) के नाम से जाना गया। इस नीति के तहत आवश्यक सामग्रियों को नष्ट किए जाने के कारण भी लोगों में असंतोष था।
  • शासक जार निकोलस । के द्वारा युद्ध की कमान अपने हाथों में लिए जाने के कारण वह स्वयं युद्ध मोर्चे पर चला गया तथा उसकी अनुपस्थिति में उसकी पत्नी जरीना और उसके धार्मिक गुरु रासपुतिन के षड्यंत्रों के कारण राज परिवार की प्रतिष्ठा को धक्का लगा।

घटनाक्रम

  • मूल्य वृद्धि की समस्या से जूझते हुए लगभग 4 लाख श्रमिक पेट्रोग्राद की सड़कों पर उतर गए तथा सरकार के आदेश के बावजूद सैनिकों ने उन पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। अतः क्रांति घटित हो गई और 15 मार्च, 1917 तक जार निकोलस द्वितीय की सरकार का पतन हो गया। दूसरी तरफ, पेट्रोग्राद के श्रमिक एवं सैनिकों ने मिलकर पेट्रोग्राद सोवियत का गठन किया। इस प्रकार, दो “भिन्न दृष्टिकोण वाली संस्थाएँ ड्यूमा तथा पेट्रोग्राद सोवियत, क्रांति का नेतृत्व करने लगीं।
  • आरंभ में, बुर्जुआ सरकार तथा नरम समाजवादियों की सरकार गठित हुई। पहली सरकार लुवोव के अंतर्गत अप्रैल  में और दूसरी सरकार करेंस्की के अंतर्गत जुलाई में गठित हुई। किंतु इन सरकारों को निम्नलिखित चुनौतियों का सामना करना पड़ा |
  1. एक तरफ ड्यूमा नामक संस्था थी, जिस पर बुर्जुआ वर्ग का प्रभाव था, दूसरी तरफ पेट्रोग्राद सोवियत (किसानों और सैनिकों से मिलकर बना संगठन) थी, जो उग्र सुधार लाना चाहते थे। इसलिए कोई भी सरकार इन दो भिन्न विरोधी दृष्टिकोणों के बीच पिस रही थी।
  2. किसानों के द्वारा क्रांति के मध्य जमीदारों की भूमि पर कब्जा कर लिया गया था। अतः उस भूमि के भविष्य का निर्णय लिया जाना था।
  3. सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि रूस को युद्ध जारी रखना चाहिए या प्रथम विश्वयुद्ध से बाहर निकल जाना चाहिए।
  4. इन मुद्दों पर उपर्युक्त दोनों सरकारों के द्वारा निर्णय नहीं लिया जा सका।


 क्रांति का द्वितीय चरण (अक्टूबर-नवम्बर क्रांति ) अथवा सर्वहारा चरण

अप्रैल, 1917 में रूस में लेनिन का आगमन हुआ और फिर उसने संपूर्ण क्रांति की दिशा ही बदल दी। बोल्शेविक क्रांति के क्षेत्र में लेनिन द्वारा अपनाई गई विशिष्ट रणनीति निम्नलिखित है
  1. लेनिन के द्वारा दिए गए नारे (Peace, Land and Bread) ने विभिन्न वर्गों को आकर्षित किया।
  2. लेनिन के द्वारा रूस की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुकूल मार्क्सवादी क्रांति की व्याख्या की गई। उसने यह घोषित किया कि विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था रूपी इस जंजीर में शक्तिशाली कड़ी पर चोट करने से जंजीर नहीं टूटेगी, वहीं कमजोर कड़ी पर चोट करने से जंजीर टूटकर बिखर जाएगी। इस प्रकार उसका मानना था कि रूस जैसे अपेक्षाकृत पिछड़े क्षेत्र में क्रांति लाने से विश्व क्रांति का लक्ष्य पूरा किया जा सकता है।
  3. उसने रूसी सर्वहारा को क्रांति का निम्नलिखित सूत्र दिया। उसके अनुसार, रूसी सर्वहारा को रूस के किसानों के साथ मिलकर क्रांति का प्रथम चरण पूरा करना चाहिए।इस चरण के पूरा होने तक श्रमिकों और किसानों के बीच फूट पड़ जाएगी। किसान पृथक हो जाएंगे, तो निर्धन किसानों की सहायता से उसे क्रांति का दूसरा चरण पूरा करना चाहिए। इस चरण में उसे क्रांति को अन्यत्र भी निर्यात करना चाहिए, ताकि विश्व क्रांति का लक्ष्य पूरा हो सके।
  4. वह नेपोलियन की तरह सही समय पर सही निर्णय लेता था। उदाहरण के लिए, वह जुलाई में बोल्शेविक पार्टी के द्वारा सत्ता ग्रहण करने के निर्णय पर तैयार नहीं था, वह अक्टूबर में जाकर ही उसके लिए तैयार हुआ।
  5. वह अपने लक्ष्य के प्रति इतना समर्पित था कि वह कोई भी अवसरवादी साधन को अपनाने के लिए तैयार रहता था। एक अवसर पर तो उसने केरेंस्की को सरकार के साथ भी सहयोग की नीति अपना ली थी।
  6. मार्च क्रांति के पश्चात् रूस में गठित दोनों सरकारें रूसी लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रहीं।

बोल्शेविक पार्टी के द्वारा सत्ता पर कब्जा तथा लेनिन के द्वारा क्रांति का संगठन

  • अक्टूबर, 1917 के अंत में ट्रॉटस्की के नेतृत्व में बोल्शेविक कार्यकर्ताओं के एक समूह ने गुरिल्ला पद्धति के माध्यमसे सरकार पर कब्जा कर लिया। इस प्रकार, सर्वहारा सरकार जनक्रांति के माध्यम से नहीं, वरन् योजना, संगठन तथा प्रशिक्षित बोल्शेविक कार्यकर्त्ताओं के माध्यम से सफल हुई। अगर एक तरह से देखा जाए, तो सर्वहारा क्रांति न तो मार्क्स ला पाया और न ही सही मायने में लेनिन ।
  • सत्ता में आने के पश्चात् लेनिन के सामने एक प्रमुख चुनौती थी क्रांति को संगठित करना । सर्वप्रथम उसे दो चुनौतियों का समाधान करना था ।
  • प्रथम, किसानों के द्वारा जमींदारों की भूमि पर जो कब्जा किया गया था, उसका भविष्य क्या हो? लेनिन ने उस भूमि के भविष्य का निर्णय करते हुए उसे किसानों के नियंत्रण में छोड़ दिया, जिस पर क्रांति के मध्य किसानों ने कब्जा कर रखा था। यद्यपि यह निर्णय साम्यवादी अवधारणा के विपरीत जा रहा था क्योंकि साम्यवादी मॉडल के अनुसार उस भूमि को सामूहिक नियंत्रण में लाया जाना चाहिए।
  • उसके समक्ष दूसरी चुनौती थी प्रथम विश्व युद्ध में सोवियत रूस की भागीदारी। उसने प्रथम विश्वयुद्ध को पूँजीवादी युद्ध करार हुए उससे बाहर निकलने का निर्णय लिया और मार्च, 1918 में जर्मनी के साथ ब्रेस्ट लिटोक्स्क की संधि कर ली। इस संधि में उसनेलगभग एक चौथाई यूरोपीय भूभाग और एक तिहाई यूरोपीय जनसंख्या को गंवा दिया, परंतु वह पीछे नहीं हटा क्योंकि उसकी पहली प्राथमिकता थी कम्युनिस्ट आंदोलन को संगठित करना। 
                                      हालांकि इस कारण उसके समक्ष एक नई चुनौती उपस्थित हुई। मित्र राष्ट्रों ने सोवियत रूस पर आक्रमण कर दिया, परंतु सोवियत रूस ने इस चुनौती को स्वीकार किया तथा ट्रॉटस्की के अधीन एक लाल सेना ने सफलतापूर्वक इस आक्रमण का सामना किया।


  • लेनिन ने समाजवादी व्यवस्था को सफल बनाने के लिए आतंक तथा रियायत (Terror and Concession) दोनों प्रकार की नीतियाँ अपनायीं ।     

आतंक या दमन की नीति  

  1. बोल्शेविक पार्टी के अंतर्गत एक तानाशाही सरकार की स्थापना की गई।
  2. दमन की नीति के तहत लेनिन ने 'चेका' नामक एक गुप्त पुलिस संगठन की स्थापना की और अपने विरोधियों का सफाया कर दिया। परंतु उसने इस बात का ध्यान रखा कि जैकावियन शासन की तरह आतंक की यह नीति आंतरिक नहीं हो केवल बाह्य रहे ।
  3. युद्धरत साम्यवाद (War Communism 1918-1921)- किसी भी सरकार की सफलता के लिए आवश्यक होती है एक सशक्त अर्थव्यवस्था। अतः लेनिन के समक्ष एक बड़ी चुनौती थी उत्पादन को ऊँचे स्तर पर पहुंचाना। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लेनिन ने कई प्रकार के प्रयोग किए। इसके तहत लेनिन ने अर्थव्यवस्था को बलपूर्वक राज्य के नियंत्रण में लाया तथा उत्पादन के उच्च स्तर को प्राप्त करने के लिए उसने कई प्रकार के कठोर नियंत्रण स्थापित किए। लक्ष्य न प्राप्त करने की स्थिति में कठोर दंड की व्यवस्था की. परंतु उसका परिणाम और भी घातक हुआ। लेनिन ने 1921 में यह महसूस किया कि उत्पादन का स्तर कम होकर 1914 के उत्पादन का मात्र 13% रह गया था।

नई आर्थिक नीति 1921  (NEP) New Economic Policy -

अब लेनिन ने बिल्कुल ही नए प्रकार का प्रयोग किया, जो उसके पुराने अनुभव से और समाजवादी सिद्धांत से अलग था और वह प्रयोग था समाजवादी और पूँजीवादी व्यवस्था की मिश्रित पद्धति का प्रयोग (लेनिन को इस पद्धति ने नेहरूवादी आर्थिक मॉडल को भी प्रभावित किया था) इसके तहत निम्नलिखित प्रमुख कदम उठाए गए ।

  • लगभग 90% अर्थव्यवस्था को राज्य के नियंत्रण में रख दिया गया।
  • किसानों को निजी स्तर पर खेती करने और अपने अतिरिक्त उत्पादन को बाजार में बेचने की अनुमति मिल गई, बस उनसे कर देने की अपेक्षा की जाती थी।
  • देशी एवं विदेशी पूँजी को भी उद्योग एवं व्यापार में निवेश करने तथा मुनाफा अर्जन करने अनुमति मिली।

रियायत की नीति Concession Policy-

रियायत की नीति के तहत उसने सोवियत रूस के अंतर्गत विभिन्न अल्पसंख्यक समूहों की नस्लीय एवं सांस्कृतिक पहचान को स्वीकृति दे दी। इस उद्देश्य से उसने सोवियत रूस को 15 गणतंत्रों का संघ बनाया तथा प्रत्येक गणतंत्र में एक प्रभावी अल्पसंख्यक समूह को स्वीकृति दी। एक तरह से अगर देखा जाए, तो यह साम्यवाद की मूल भावना के विपरीत जा रही थी क्योंकि उसमें केवल वर्गीय पहचान के लिए जगह थी।


स्टालिन का उद्भव ( 1927-53 ई.)

1924 में लेनिन का देहांत हो गया। यद्यपि उसका अधिकृत उत्तराधिकारी ट्रॉटस्की था, परंतु जोसेफ स्टालिन ने बलपूर्वक सत्ता पर कब्जा कर लिया और उसने विरोधियों का सफाया कर दिया। सोवियत रूस में साम्यवाद के इतिहास में स्टालिन की निम्नलिखित भूमिका रही ।

स्टालिन के शासन का क्रूर पक्ष

स्टालिन ने एक पार्टी की तानाशाही को एक व्यक्ति कीतानाशाही में परिवर्तित कर दिया था। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने बहुत ही क्रूर नीति अपनाई। अपने विरोधियों को या तो मरवा डाला या फिर मनोचिकित्सा वाले अस्पताल में भर्ती करवा दिया। भूमि के सामूहिकीकरण के मध्य ही लगभग 10 लाख लोग मौत के घाट उतार दिए गए।


स्टालिन के शासन का सबल पक्ष ( योगदान)

सोवियत रूस की एक सशक्त राष्ट्र बनाने में स्टालिन का एक बड़ा योगदान था। इस कारण सोवियत रूस द्वितीय विश्व युद्ध में सफलतापूर्वक जर्मन आक्रमण का मुकाबला कर सका और युद्ध के विध्वंस के बावजूद भी विश्व की दूसरी महाशक्ति के रूप में स्थापित हुआ । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने निम्नलिखित कदम उठाए ।

1. मार्क्सवादी क्रांति की रणनीति में परिवर्तन - उसका मानना था कि सोवियत रूस के प्रचारात्मक कार्यक्रम के कारण पूँजीवादी देश संगठित हो सकते हैं तथा वे साम्यवाद को विनष्ट करने का प्रयास कर सकते हैं। इसलिए, उसका मानना था कि तात्कालिक रूप में हमें विश्व क्राति के लक्ष्य को स्थगित कर एक देश में समाजवाद को मजबूत बनाना चाहिए। अतः उसने नारा दिया- विश्व क्रांति बनाम एक देश में समाजवाद ।

2. सोवियत रूस को एक आधुनिक औद्योगिक राष्ट्र के रूप में परिवर्तित करना- वह एक स्वप्नद्रष्टा था तथा   उसे यह विश्वास हो चला था कि सोवियत रूस में जो भी आक्रमण होगा, वह पश्चिम से होगा और सोवियत रूस को एक शक्तिशाली राष्ट्र बनना है तो उसे तीव्र औद्योगीकरण करने की जरूरत है। सोवियत रूस से पहले औद्योगीकरण का पूँजीवादी मॉडल प्रचलित रहा था। परन्तु सोवियत रूस ने औद्योगीकरण का अलग मार्ग अपनाया। उसके समाजवादी औद्योगीकरण की निम्नलिखित विशेषताएं रहीं ।

I. औद्योगीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि अर्थव्यवस्था का भरपूर दोहन
     स्टालिन ने भूमि पर निजी स्वामित्व को समाप्त कर भूमि के सामूहिकीकरण (Collectivization) को नीति अपनाई अर्थात् भूमि को सहकारी अथवा सामूहिक स्वामित्व में परिवर्तित कर दिया तथा सामूहिक रूप में खेती एवं उत्पादन का वितरण आरंभ हुआ। यहाँ लक्ष्य था कृषि क्षेत्र के अधिशेष का औद्योगीकरण में निवेश करना, किंतु किसानों ने इस लक्ष्य का विरोध किया। स्टालिन ने इसके लिए उम्र नीति अपनाई।

 II. निजी स्वामित्व को समाप्त करना
      न केवल भूमि के क्षेत्र में, बल्कि औद्योगिक क्षेत्र में भी निजी स्वामित्व औरनिजी निवेश को समाप्त कर दिया गया। अब लेनिन कीमिश्रित अर्थव्यवस्था पूर्ण समाजवादी अर्थव्यवस्था में परिवर्तित हो गई।

III. आर्थिक आयोजन (Economic Planning) का आरंभ 
       आर्थिक आयोजन पूँजीवादी आर्थिक मॉडल के विपरीत था। जहाँ पूँजीवादी आर्थिक मॉडल बाजार की शक्तियों के आधार पर संचालित होता था जिसमें माँग और पूर्ति निर्धारक कारक होते थे, परंतु समाजवादी अर्थव्यवस्था में राज्य के द्वारा निवेश, उत्पादन और वस्तुओं का वितरण निर्धारित किया जाने लगा।

IV. स्टालिन के द्वारा तीव्र औद्योगीकरण की नीति अपनाई गई, परंतु इस औद्योगीकरण में दो क्षेत्रक मॉडल (Two Sector Model) पर बल दिया गया। दूसरे शब्दों में, दो चरणों में औद्योगीकरण का लक्ष्य प्राप्त किया जाना था, प्रथम चरण में पूँजीगत उद्योगों (Capital Goods Industries) की स्थापना होती. तो दूसरे चरण में उपभोक्ता संबंधी उद्योगों (Consurner Goods Industries) की।



प्रभाव एवं महत्त्व

  1. यह विश्व की पहली सर्वहारा क्रांति थी। इस क्रांति के माध्यम से मार्क्सवादी विचारधारा को पहली बार वास्तविकता का जामा पहनने का अवसर मिला।
  2. रूस की क्रांति के पश्चात् यूरोप विचारधारा के स्तर पर इस कदर विभाजित हो गया जैसा कि धर्म सुधार आंदोलनके बाद वह कभी नहीं हुआ था।
  3. बोल्शेविक क्रांति की सफलता के पश्चात् विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में साम्यवादी व समाजवादी विचारधारा का तेजी से प्रसार हुआ।
  4. इस क्रांति के पश्चात् सोवियत रूस ने आर्थिक आयोजन तथा राज्य नियंत्रण के रूप में आर्थिक विकास का एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत किया और विश्व आर्थिक मंदी * (1929-30) के समय सोवियत रूस ने अपनी इस पद्धति के महत्त्व को स्थापित कर दिया। फिर सोवियत रूस की आर्थिक सफलता के पश्चात् यह आर्थिक मॉडल विश्व के अन्य क्षेत्रों में भी तेजी से अपनाया जाने लगा। पूँजीवादी देशों ने भी विश्व आर्थिक मंदी से सबक लेकर समाजवादी अर्थव्यवस्था की कुछ विशेषताओं को ग्रहण कर लिया। व अतः एक दृष्टि से रूस के साम्यवादी आंदोलन ने स्वयं स पूँजीवादी पद्धति के स्वरूप को बदल दिया।
  5. रूस में साम्यवादी सरकार की स्थापना ने विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में उपनिवेश मुक्ति की प्रक्रिया को बल प्रदान किया। दूसरे शब्दों में, इसने उपनिवेशों को एक वैकल्पिक विचार एवं दृष्टिकोण प्रदान किया, जिसने उन देशों में स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया।
  6. आगे संपूर्ण विश्व विचारधारा के आधार पर विभाजित हो गया। अतः रूस में साम्यवादी पद्धति की स्थापना ने शीत युद्ध को प्रोत्साहन दिया।

प्रश्नः लेनिन की नव-आर्थिक नीति ने 1921 में स्वतंत्रता किं शीघ्र पश्चात् भारत द्वारा अपनायी गयी नीतियों को प्रभावित किया था। मूल्यांकन कीजिए। ( UPSC-2014)

उत्तरः लेनिन की नव आर्थिक नीति इस रूप में विशिष्ट थी कि इसने न केवल सोवियत रूस तथा आगे पूर्वी यूरोप के समाजवादी देशों के लिए आर्थिक विकास का एक मॉडल तैयार किया, अपितु इसने भारत जैसे नव स्वतंत्र राष्ट्र पर भी अपना प्रभाव छोड़ा। इसने भारतीय आर्थिक नीति को एक नयी दिशा दे दी।
                                     
                             लेनिन के नव आर्थिक मॉडल के दो महत्वपूर्ण पहलू थे। प्रथम दो क्षेत्रक मॉडल (Two sector model). जिसे पोस्टमैन मॉडल (Feldman Model) भी कहा जाता है।इस मॉडल के तहत सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र दोनों को अर्थव्यवस्था में जगह दी गई। फिर दूसरा पहलू था पूँजीगत और भारी उद्योगों की स्थापना, जिसका उद्देश्य था भावी औद्योगीकरण का रास्ता तैयार करना अर्थात् पूँजीगत उद्योग की स्थापना के पश्चात् उपभोक्ता संबंधी उद्योगों की स्थापना को स्वाभाविक परिणाम के रूप में देखा गया। इसे दूसरी पीढ़ी का औद्योगीकरण कहा गया। भारत ने स्वतंत्रता के शीघ्र बाद द्वितीय पंचवर्षीय ar न योजना में सोवियत रूस के आर्थिक मॉडल की विशेष महत्व दिया। पी. सी. महालनोबिस ने द्वितीय पंचवर्षीय योजना के तहत भारत के भावी औद्योगीकरण का मॉडल तैयार किया जो दो क्षेत्रक मॉडल तथा पूँजीगत उद्योगों पर आधारित था। भारत के औद्योगीकरण में सार्वजनिक क्षेत्र तथा निजी क्षेत्र दोनों को महत्व के दिया गया तथा भारी उद्योग की स्थापना पर विशेष बल दिया गया। इसे भारत के भावी औद्योगीकरण के लिए आवश्यक तैयारी माना गया। आरंभ में यह मॉडल सोवियत रूस और भारत दोनों ही क्षेत्रों में सफल रहा था. किन्तु आगे सोवियत रूस के न्य भारत में भी इस आर्थिक मॉडल में एक प्रकार का व्यवधान उत्पन्न हुआ।

       




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